अब TV पर "गुरु" बोल बोल कर सिद्धू जी ने गुरु शब्द का मज़ाक़ बना दिया है।

अरे गुरु तो अपने दुबे जी हैं।

यह कहानी पेश है उनके गुरुत्व की:

बात इसी मई महीने की है। बड़ी गरमी थी। शनिवार शाम हम लोग मिले बेग़म ब्रिज के पास गौतम टी स्टॉल पर। बाक़ी दिन तो सब का ग़ाज़ियाबाद आने जाने में ही लग जाता था। सबकी नौकरियाँ तो वहाँ ही हैं। यह हाल मेरठ में कई लोगों का होता है। दोस्तों से मिलना हो तो बस वीकेंड ही है। तो ख़ैर, हम पूराने मेरठ के तीनो मित्र मिले उस दिन। दुबे जी, रंजन और मैं। चाय पी जा रही थी फ़ुर्सत से। क़िस्से कहानी चल रहे थे, लेकिन बात दुबे जी और मैं ही ज़्यादा कर रहे थे। रंजन चुपचाप हूँ हाँ कर रहा था बीच बीच में बस। थोड़ी देर तो यही सिलसिला चलता रहा पर फिर मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने उसको दो चार गाली सुना दीं।

पूछा, "क्या हुआ है, भाई? बोलो।"

रंजन: रहने दो यार। मूड ठीक नहीं है।

मैं: अरे ऐसे मूड कब से होने लगा? बोलो बात क्या है। घर में सब ठीक है?

रंजन: हाँ, सब ठीक है।

मैं: काम पर?

रंजन: हाँ यार, काम पर सब बढ़िया। लग रहा है इसी साल प्रमोशन भी हो जाएगा। बस आज मूड ठीक नहीं।

मैं: अरे ऐसा क्या हो गया जो हम से नहीं बोल पा रहे?

रंजन: जाने दो भाई। कुछ नहीं हुआ है।

मैं: बताओ। ऐसे कैसे जाने दें?

रंजन: अजीब आदमी हो। पीछे ही पड़ गए। आराम से चाय पियो।

मैं: पीछे पड़ा क्योंकि मुझे जानना है कि क्या हुआ है। बताओ। बताओ।

रंजन अब काफ़ी खीझ उठा था। शायद मुझे इतना पीछे नहीं पड़ना चाहिए था। मगर क्या करूँ। रहा नहीं गया।

रंजन: तो अब सुन। मेरा अब खड़ा नहीं हो रहा है। सैक्स नहीं कर पा रहा हूँ मैं। दो महीने हो गए। दिमाग़ में यही चल रहा है। सुन लिया? अब ख़ुश?

मैं: यार, मैं...

अब बारी रंजन की थी

रंजन: तो सुन लिया तूने कि मैं क्यों चुप हूँ? बता, क्या करूँ अब मैं?

मेरे पास कोई जवाब नहीं था। जैसा ऐसा में अक्सर होता था, मैंने दुबे जी की ओर देखा। चुपचाप अपने फ़ोन पर कुछ कर रहे थे। हमेशा की तरह शांत।

फिर फ़ोन से नज़र उठा कर बोले, "सुनो, रंजन। एक लिंक फ़ॉर्वर्ड किया है। क्लिक करो उस पर ज़रा।"

और फिर गौतम चाय वाले से बोले, "यार, तीन चाय और दे दो ज़रा। और स्पेशल बना देना।"

रंजन अब अपना फ़ोन देख रहा था। लिंक पर शायद वो क्लिक कर चुका था। थोड़ी देर में बोला, "यार यह तो सही है। दवा ऑर्डर कर दूँ इस पर ही?", उसने दुबे जी से पूछा। उन्होंने सिर्फ़ सिर हला कर हाँ बोला। अब चाय आ गयी। इधर उधर की बात हुई और थोड़ी देर में घर जाने वक़्त हो गए।

फिर अगले शनिवार मैं फिर पहुँचा गौतम टी स्टॉल। मित्रों से मिलने का वक़्त फिर आ गया था।

रंजन आते ही दुबे जी के गले लग गया। फिर पहले चाय पीते हुए, मुस्कुराते हुए, बोला, "क्या लिंक भेजा गुरु!"

दुबे जी बस मुस्कुराए।


अब अगर आपके कोई दोस्त दुबे जी जैसे नहीं हों, और अगर आपको यह लिंक चाहिए हो तो मैं ही दिए देता हूँ। यह रहा साहब:

बस यहाँ क्लिक कर लीजिए। काम हो जाएगा।