आयुर्वेद एक प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान है, इसके कार्य करने के मूलभूत सिद्धांत, मनुष्य और प्रकृति के बीच आपसी तालमेल पर आधारित हैं। इसे समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि, हमें अपना जीवन किस तरह व्यतीत करना चाहिए, अपने चारों ओर के वातावरण और दैनिक जीवन की वस्तुओं का सम्यक उपयोग करते हुये निरोगी शरीर कैसे प्राप्त कर सकते हैं।
रोग और आरोग्य
रोगस्तु दोष वैषम्यं दोष साम्य आरोग्यता।
यह आयुर्वेद का आधारभूत नियम है, त्रिदोष का साम्यावस्था मे रहना आरोग्य है, और विषम होना ही रोग का कारण है। आइये जानते हैं, कि यह त्रिदोष किन कारणों से विषम हो जाते हैं।
कालार्थ कर्मणां योगो हीन मिथ्या अति मात्रकाः।
सम्यक योगश्च विज्ञेयो रोगारोग्यै कारणम्।।
(अ. ह्र. सू. -19)
काल, अर्थ, और कर्म का हीनयोग, मिथ्या योग, अतियोग ही रोग का और सम्यक योग आरोग्य का कारण है।
काल का अर्थ मौसम है, यह तीन तरह का होता है- शीत काल(कोल्ड वेदर), ग्रीष्म काल(हॉट वेदर), वर्षा काल(रेनी वेदर)। इन तीनों तरह के मौसम का हींन योग( सामान्य से कम होना) अति योग( सामान्य से अधिक) और मिथ्या योग( अपने समय के विपरीत दूसरे समय मे होना) होने से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाता है, और मनुष्य के रोग ग्रस्त होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
अर्थ से तात्पर्य है, मनुष्य की इंद्रियों के स्वाभाविक विषय, मनुष्य में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (फाइव सेंसेसन्स) होते हैं। इन सभी के अलग अलग विषय होते हैं।
आंख - देखना, नाक- गंध ज्ञान, कान- शब्द ग्रहण, जिभ्या- स्वाद ग्रहण, त्वचा - स्पर्श ज्ञान । इन इंद्रियों के विषयों का हींन, अति या मिथ्या योग रोगों को पैदा कर सकता है।
जीभ- भोजन का बिल्कुल न करना अयोग, आवश्यकता से अधिक खाना अतियोग औऱ नियम विरुद्ध गलत चीजें खाना मिथ्या योग है।
आँख- बिल्कुल ना या कम देखना अयोग, बहुत चमकीली वस्तु, कम्प्यूटर, मोबाईल की स्क्रीन को आधिक देखना अतियोग, बुरी, गन्दी, डरावनी, वीभत्स, विकृत चीजों को देखना मिथ्या योग है।
कान- बिल्कुल कम सुनना अयोग है, बहुत तेज आवाज, लाऊड म्यूजिक सुनना अति योग है, बुरी बातें, गालियां, निन्दा, तिरस्कार, भय उत्तपन्न करने वाले शब्दों का सुनना मिथ्या योग है।
नाक- बिल्कुल ना सूंघना अयोग है, तीव्र गंध जैसे मिर्च, या उग्र गंध वाली चीजों का अधिक सूंघना अतियोग है, सड़ी गली, अपवित्र, दुर्गंध वाली या जहरीले धुएं को सूंघना मिथ्या योग है।
त्वचा- बहुत अधिक ठंडे, गर्म वातावरण में रहना स्नान करना अति योग है, ऐसा बिल्कुल भी ना करना अयोग है, और चोट, घाव, शव, जैसी वस्तुओं का स्पर्श करना मिथ्या योग है।
कर्म में मनुष्य की पांच कर्मेन्द्रियों (हाथ, पैर, गुदा, लिंग, वाणी) द्वारा किये जाने वाले सामन्य प्राकृतिक कार्यों के बारे में ध्यान रखना चाहिए, अन्यथा ये भी रोग उत्तपन्न कर देते हैं। जैसे हाथ पैरों का बहुत कम उपयोग करना अयोग, बहुत ज्यादा यूज़ करना अतियोग, और गलत तरीके से प्रयोग करना मिथ्यायोग कहलायेगा। लिंग और गुदा से बॉडी के हानिकारक पदार्थों को बाहर निकलते हैं, अतः मल मूत्र के वेग को बलपूर्वक रोक कर रखना या जबरजस्ती बाहर निकालने की कोशिश करने से रोग उत्तपन्न हो सकते हैं। इसी तरह वाणी का भी गलत प्रयोग निंदा, चुगली, झगडा, अप्रिय बोलना से मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, और मनोरोग होने की सम्भावना हो जाती है।
महर्षि चरक ने इन इंद्रियों के गलत उपयोग को असात्म्य इंद्रियार्थ संयोग कहा है। यहां बताए गए कारणों से दोष प्रकुपित हो जाते हैं, और आगे चलकर रोग उत्पत्ति कर देते है।
सर्वप्रथम तो आयुर्वेद के नियमों का पालन करना चाहिए जिससे कि हमारी हैल्थ मेंटेन रह सके। फिर भी अगर किसी कारण से दोष प्रकुपित हो जाएं और रोग ग्रस्त हो जाएं तो फिर ऐसी स्थिति में दोष और रोग का सही निर्धारण करके चिकित्सा की जानी चाहिए। इस कार्य के लिए आयुर्वेद के चिकित्सक से सलाह लेना चाहिए |
शमन चिकित्सा-
जब दोष प्रकोप बहुत अधिक न हो, रोग नवीन हों और लक्षण भी बहुत ज्यादा विषम ना हों तब शमन चिकित्सा का प्रयोग किया जाता है। इसमे लंघन(फास्टिंग), पाचन (डाइजेशन) के साथ औषधि का प्रयोग करके दोषों को उनके स्थान पर ही शांत करके रोग मुक्ति कर दी जाती है।
शोधन चिकित्सा-
जब दोष प्रकोप अधिक हो, रोग बढ़ गया हो एवं लक्षण जटिल हो गए हों तो शमन चिकित्सा से पूरा आराम नही होता ऐसे में शोधन के माध्यम से प्रकुपित दोष और विषाक्त पदार्थों को शरीर से बाहर निकल जाते हैं और रोग ठीक हो जाते हैं।
कफ दोष के लिए- वमन कर्म
पित्त दोष के लिए- विरेचन कर्म
वात दोष के लिए- वस्ति कर्म
इनके अलावा स्नेहन, स्वेदन, रक्तमोक्षण, शिरोविरेचन आदि का प्रयोग भी किया जाता है।